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बिना स्कूल गए विश्वविद्यालय की डिग्री और दस से अधिक भाषाओं के ज्ञाता: गोपाल सिंह नेगी की अमर जीवन गाथा

  • Writer: Bharat Bhushan Negi
    Bharat Bhushan Negi
  • May 29
  • 12 min read

Updated: May 30

अपराजेय योद्धा गोपाल सिंह नेगी

सन् 1936 में किन्नौर में जन्मा ऐसा व्यक्तित्व जिसने बिना स्कूल जाए विश्वविद्यालय की डिग्री हासिल की, दस से अधिक भाषाओं का ज्ञानअर्जित किया, और जीवन भर कभी हार नहीं मानी

 

1.     प्रारंभ: मिट्टी से उठती एक मशाल

गोपाल सिंह नेगी का जन्म सन् 1936 में तत्कालीन बुशहर रियासत के प्रमुख राजग्रामंग खुंद (परगना) के एक छोटे, मगर ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध गांव छोलांग (वर्तमान चगांव) में हुआ था। यह वह दौर था जब भारत अभी अंग्रेज़ी शासन के अधीन था, और हिमाचल प्रदेश जैसी कोई प्रशासनिक इकाई अस्तित्व में नहीं थी। उस समय इस समूचे पर्वतीय क्षेत्र में अलग-अलग रियासतों की राजशाही व्यवस्था चलती थी। उस समय हिमाचल प्रदेश का गठन नहीं हुआ था और बुशहर रियासत की अपनी राजशाही प्रणाली थी, जो इस क्षेत्र की सबसे बड़ी और प्रभावशाली रियासतों में एक थी, जो क्षेत्रीय प्रशासन के अंतर्गत थी, जबकि संपूर्ण क्षेत्र औपचारिक रूप से अंग्रेज़ों के अधीन था। इसी रियासत की गोद में चगांव जैसे पहाड़ी गांवों में जीवन अपनी कठिन, मगर गरिमामयी गति से चल रहा था।

चित्र: गोपाल सिंह 1971 में SSB की पोशाक में।
चित्र: गोपाल सिंह 1971 में SSB की पोशाक में।

गोपाल सिंह के माता का नाम श्रीमती उबर जिन और पिता का नाम श्री हरजुआ था। ये दोनों अत्यंत साधारण और परिश्रमी पर्वतीय किसान थे, जिनके जीवन में संघर्ष और श्रम ही सबसे बड़ी पूंजी थी। गोपाल सिंह अपने छह भाई-बहनों में दूसरे स्थान पर थे। अपने दोनों छोटे भाइयों से बड़े होने के कारण बचपन से ही उनके कंधों पर परिवार की जिम्मेदारियों का बोझ आ गया था। उस समय का सामाजिक ढांचा ऐसा था कि बड़े बेटे से घर-गृहस्थी और कृषि-पशुपालन का काम संभालने की अपेक्षा की जाती थी। इसलिए बहुत कम उम्र में ही उन्होंने भेड़-बकरियां को चराना, खेतों में हल चलाना, और पशुओं की देखभाल जैसे कार्यों में हाथ बंटाना शुरू कर दिया था।


2. ज्ञान की भूख: बिना स्कूल गए शिक्षा की यात्रा

1936 के दशक का वह समय हिमालयी जीवन के लिए बेहद कठिन और सीमित संसाधनों का युग था। चगांव जैसे गांवों में जीवन के लिए आवश्यक मूलभूत सुविधाएं जैसे सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि अत्यंत दुर्लभ थीं। अधिकांश लोग कृषि और पशुपालन जैसे परंपरागत कार्यों में लगे रहते थे। शिक्षा का स्तर अत्यंत निम्न था और पूरे क्षेत्र में गिनती के कुछ ही स्कूल थे। मुख्य विद्यालय चिनी (वर्तमान में कल्पा) में स्थित था, जो उस समय का शैक्षिक केंद्र था। वहाँ तक पहुँचने के लिए कोई पक्की सड़क नहीं थी—या तो दुर्गम पैदल मार्गों से जाना होता था या फिर ‘हिंदुस्तान-तिब्बत मार्ग’ से, जो उस समय बुशहर रियासत और तिब्बत के बीच व्यापार के लिए बनी थी। चगांव से कलपा तक का यह पैदल सफर पूरे एक दिन का हुआ करता था।


जब देश अंग्रेज़ों के चंगुल से स्वतंत्र हुआ, उस समय गोपाल सिंह की आयु मात्र 11 वर्ष थी। आज़ादी के पश्चात सभी रियासतों का स्वतंत्र भारत में विलय हुआ, राजशाही प्रणाली का अंत हुआ, और सन् 1948 में हिमाचल प्रदेश का गठन हुआ। इसी गठन के अंतर्गत बुशहर रियासत का चगांव, महासू जिले की चिनी (वर्तमान कल्पा) तहसील का हिस्सा बना। बाद में सन् 1960 में किन्नौर एक ज़िले के रूप में अस्तित्व में आया और चगांव, निचार तहसील का भाग बन गया।


आज जहाँ हम शिक्षा को मौलिक अधिकार मानते हैं, वहाँ उस दौर में केवल कुछ ही परिवार अपने बच्चों को स्कूल भेज पाते थे, वह भी मुख्यतः वे जो चिनी (वर्तमान में कल्पा) के पास रहते थे या जिनके पास आर्थिक सामर्थ्य थी। अधिकांश बच्चों को या तो स्कूल का मुँह देखना ही नसीब नहीं होता था, या बीच में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ती थी। गोपाल सिंह भी इस सामाजिक परिपाटी के शिकार हुए। चूँकि वे घर के बड़े बेटे थे, उन्हें कभी स्कूल भेजा ही नहीं गया।

परंतु उनके भीतर सीखने और जानने की एक प्रबल जिजीविषा थी। उन्हें अक्षरों से प्रेम था—इतना गहरा कि जब भी वे कहीं चल रहे होते या रास्तों में भेड़-बकरियाँ चराते समय कोई फटा-पुराना कागज़ का टुकड़ा दिखाई देता, जिस पर कुछ लिखा होता था, तो वे उसे चुपचाप उठा लेते, और घर लाकर उसे पढ़ने और समझने की कोशिश करते।गाँव में जो कुछ लोग थोड़ा-बहुत पढ़े-लिखे थे, या जो अन्य ज़िलों से आकर यहाँ कामकर रहे थे, उनसे वे उन शब्दों का उच्चारण, अर्थ, और तरीका समझने की कोशिश करते।

चित्र: गोपाल सिंह, ज्यादातर समय किताबों और समाचार पत्रों में बिताते थे।
चित्र: गोपाल सिंह, ज्यादातर समय किताबों और समाचार पत्रों में बिताते थे।

उनके लिए यह सीखना केवल जानकारी लेने का माध्यम नहीं था, बल्कि एक प्रकार की साधना थी। वे उन अक्षरों को मिट्टी, सपाट पत्थरों या दीवारों पर हू-ब-हू उकेरते रहते, और धीरे-धीरे उन्होंने हिंदी भाषा का एक ठोस आधार स्वयं तैयार कर लिया—बिना किसी औपचारिक शिक्षा के।


जब वे ऊँचे पहाड़ों पर बकरियाँ चराने जाते, तो साथ में चुपचाप कोई पुरानी किताब या पन्ना ले जाते। उसे छुप-छुपाकर पढ़ते रहते, क्योंकि घर में पढ़ने पर डाँट पड़ती थी। कई बार जब वे पढ़ाई में इतने खो जाते कि बकरियाँ इधर-उधर चली जातीं, या कोई दुर्घटना घटती, तब उन्हें घर में मार भी खानी पड़ती थी।


पर उन्होंने कभी पढ़ाई नहीं छोड़ी। बरसात और मानसून के मौसम में वे किताबों को अपने कपड़ों में छुपाकर रखते ताकि पन्ने गीले न हो जाएँ।यही उनकी लगन थी जिसने उन्हें बिना स्कूल जाए, सभी कक्षाओं की परीक्षाएँ प्राइवेट उम्मीदवार के रूप में पास करने का आत्मबल और आत्मज्ञान दिया।


बिना औपचारिक स्कूल गए, कठिन जीवन-परिस्थितियों में रहते हुए गोपाल सिंह ने निरंतर स्वअध्ययन (Self Study) जारी रखा। और इसी संघर्षशील यात्रा में, सन् 1963 में उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ से "रत्ना (हिंदी/संस्कृत साहित्य में पारंपरिक रूप से B.A. के समकक्ष मानी जाने वाली उपाधि)की पहली परीक्षा उत्तीर्ण की।

चित्र: पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ से रत्ना परीक्षा की अंकतालिका
चित्र: पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ से रत्ना परीक्षा की अंकतालिका

यह परीक्षा, उस समय उच्च अध्ययन के लिए एक प्रतिष्ठित और कठिन मार्ग हुआ करती थी। हिमाचल प्रदेश उस समय एक पूर्ण राज्य भी नहीं बना था और चंडीगढ़ स्थित पंजाब विश्वविद्यालय, जो विभाजन से पूर्व लाहौर में स्थित था, उच्च शिक्षा का प्रमुख केंद्र था। गोपाल सिंह द्वारा आत्म-अध्ययन से यह उपलब्धि प्राप्त करना उनके समय के युवाओं के लिए एक महान प्रेरणा बना।


विश्वविद्यालय की प्रारंभिक शिक्षा की पहली परीक्षा सफलतापूर्वक उत्तीर्ण करने के पश्चात वे पारिवारिक उत्तरदायित्वों में इस प्रकार बंध गए कि नियमित रूप से आगे की औपचारिक पढ़ाई संभव नहीं हो पाई। लेकिन ज्ञान की ज्योति उनके भीतर सदैव प्रज्वलित रही — उन्होंने अध्ययन कभी नहीं छोड़ा। इसी बीच उनका विवाह श्रीमती भाग देवी से हुआ, जो जीवन भर हर कदम पर उनके साथ रहीं। कुछ वर्षों बाद वे सशस्त्र सीमा बल (SSB) में भर्ती हुए, जहाँ सेवा, अनुशासन और राष्ट्रभक्ति के नए आयामों से उनका साक्षात्कारहुआ।जब गोपाल सिंह देश की रक्षा में सेवा कर रहे थे, तब उनकी अर्धांगिनी ने न केवल परिवार और घर की सम्पूर्ण जिम्मेदारी निभाई, बल्कि उनकी पढ़ाई और आत्मिक विकास में भी कभी कोई बाधा नहीं आने दी। उन्होंने अपने जीवन को अपने पति की साधना, सेवा और संकल्प के साथ पूरी तरह समर्पित कर दिया।


देश सेवा के कठोर जीवन के बीच भी उन्होंने पुस्तकों से नाता नहीं तोड़ा। प्रशिक्षण शिविरों, सीमावर्ती चौकियों और ड्यूटी के कठिन समयों में भी वे स्वयं को पढ़ाई के लिए प्रेरित करते रहे।


लगभग दो दशक के समर्पण के पश्चात, सन् 1979 में उन्होंने अपनी अधूरी शिक्षा को पूर्ण करने का संकल्प लिया। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला के भाषा विभाग से उन्होंने 'प्रभाकर' की डिग्री प्राप्त की, जो आज के बी.ए. (हिंदी) के समकक्ष मानी जाती है। यह केवल एक डिग्री नहीं थी, बल्कि उनके सतत आत्मबल, अनुशासन और ज्ञान के प्रति अटूट निष्ठा का प्रतीक थी।


तब तक हिमाचल प्रदेश, जो उनके बचपन में एक रियासत प्रणाली के अधीन क्षेत्र था, भारतीय गणराज्य का एक पूर्ण राज्य बन चुका था, और शिमला में उच्च शिक्षा का आधारभूत ढांचा स्थापित हो चुका था। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में एक ग्रामीण, जिन्होंने कभी विद्यालय का दरवाज़ा नहीं देखा था, उन्होंने विश्वविद्यालय की डिग्री प्राप्त कर न केवल अपने गाँव, बल्कि पूरे क्षेत्र के लिए प्रेरणा का एक दीप जला दिया।

चित्र: हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से प्राप्त प्रभाकर डिग्री प्रमाणपत्र
चित्र: हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से प्राप्त प्रभाकर डिग्री प्रमाणपत्र

शिक्षा के प्रति उनके जुनून का यह आलम था कि उन्होंने एक बार अपने ज्येष्ठ पुत्र लोक राम नेगी (Retired Inspector, ITBP) के साथ अंग्रेज़ी विषय की परीक्षा भी दी थी।


SSB में उन्होंने मेडिक्स विभाग में प्रशिक्षण प्राप्त किया और एक योग्य चिकित्सा सहायक बने। नौकरी के दौरान या फिर छुट्टियों में जब वे गाँव आते, तब ग्रामीणों को प्राथमिक उपचार भी स्वयं किया करते थे।

चित्र: मेडिक्स कोर्स के दौरान 1976 में डायरी में की गई उनकी लेखनी
चित्र: मेडिक्स कोर्स के दौरान 1976 में डायरी में की गई उनकी लेखनी

गोपाल सिंह को भाषाओं के प्रति विशेष आकर्षण था। उन्होंने एच.पी.यू. (हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय) और पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के भाषा विभाग से परीक्षाएँ पास की थीं। इसके अतिरिक्त, वे देश के जिन-जिन हिस्सों में कार्यरत रहे, वहाँ की स्थानीय भाषाओं को उन्होंने आत्मसात किया।


उनके पास दस से अधिक भाषाओं का गहन ज्ञान था, जिनमें प्रमुख हैं — हिंदी, अंग्रेज़ी, उर्दू, पंजाबी, गुजराती, बंगाली, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ और तमिल। इनमें से अधिकांश भाषाओं में वे पढ़ने और लिखने में दक्ष थे। भाषाई प्रतिभा उनके व्यक्तित्व का अद्वितीय पक्ष था, जो उनके स्वाध्याय, अनुशासन और बौद्धिक जिज्ञासा का प्रमाण था।


3. सेवा, निर्देश और आदर्श: SSB में जीवन और मूल्य

उनका अनुशासन ऐसा था कि वे किसी भी प्रकार की अनैतिकता, झूठ, या अनुशासनहीनता को स्वीकार नहीं करते थे। फौज में भी यदि कोई सिपाही समय का उल्लंघन करता या फालतू वक्त में ताश आदि खेलता, तो वे उसे तुरंत टोकते और उस आदत को हतोत्साहित करते। उनके लिए सेना सेवा एक गंभीर दायित्व था, जिसमें ‘देश सेवा सर्वोपरि’ थी।


चित्र: कर्नाटक में अपने ड्यूटी के समय।
चित्र: कर्नाटक में अपने ड्यूटी के समय।

 

4. पारिवारिक विरासत: विचारों की वंशबेल

गोपाल सिंह नेगी की जीवन यात्रा न केवल उनके व्यक्तिगत संघर्षों और सिद्धांतों से भरी रही, बल्कि उनके परिवार पर भी उनके आदर्शों की गहरी छाप पड़ी। उनके द्वारा बोए गए विचारों के बीज आज विविध दिशाओं में पुष्पित-पल्लवित हो रहे हैं — चिकित्सा, विज्ञान, शोध, कला और संगीत जैसे क्षेत्रों में उनके वंशज भारत, संयुक्त अरब अमीरात, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे देशों में अपनी-अपनी प्रतिभा और परिश्रम सेप्रतिष्ठा प्राप्त कर रहे हैं।


उनके ज्येष्ठ पुत्र लोक राम ने 22 वर्षों तक ITBP में इंस्पेक्टर के पद पर कार्य किया, जिनके सुपुत्र वर्तमान में संयुक्त राज्य अमेरिका के Office of Personnel Management में वरिष्ठ डेटा साइंटिस्ट के पद पर कार्यरत है।


उनके कनिष्ठ पुत्र किशोरी ने भारतीय सेना में देश की सेवा की, और सेवानिवृत्ति के पश्चात अपने ज़िले में एक Homeopathic Doctor के रूप में कार्य कर रहे हैं। वे अपने क्षेत्र में काफ़ी लोकप्रिय भी हैं।


उनकी ज्येष्ठ पुत्री कमला अपने परिवार में नैतिक मूल्यों और शिक्षा की धारा को आगे बढ़ा रही हैं। उनके सुपुत्र वर्तमान में कनाडा में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और उनकी पुत्री एक योग्य Doctor (Psychiatrist) हैं।


उनकी मंझली पुत्री विद्या कुमारी, अपने पिता की अध्ययनशीलता और मूल्यों से प्रेरित होकर, अपने बच्चों के जीवन में उन्हीं आदर्शों को उतारने का प्रयास करती रहीं। यह उनके संस्कार और परवरिश का ही परिणाम है कि उनके सुपुत्र आज भारत के IIT जैसे शीर्ष संस्थानों से लेकर ऑस्ट्रेलिया के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में PhD कर रहे हैं। शिक्षा के साथ-साथ परिवार ने सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी उल्लेखनीय योगदान दिया है — उनके कनिष्ठ पुत्र संगीत और कला के क्षेत्र में एक सशक्त नाम बन चुके हैं। उन्होंने Parikrama School of Music से शिक्षा प्राप्त करते हुए, legendary गिटारिस्ट सोनम शेरपा के सान्निध्य में रहकर Rock School London से गिटार में ग्रेड्स प्राप्त किए। और उनकी पुत्री ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करी है। विद्या कुमारी, अपने पिता के केवल विचारों से नहीं, बल्कि उनके जीवन के हर सुख-दुख, संघर्ष और अंतिम क्षणों तक उनका साथ देती रहीं।


गोपाल सिंह की कनिष्ठ पुत्री सुषमा ने नब्बे के अर्धदशक  के शुरूवात में, किन्नौर जैसे दूरस्थ और अत्यंत सीमित संसाधन के दौर मे पढ़ते हुए, PMT (Pre-Medical Test) में सफलता प्राप्त की। यह वह समय था जब गाँव की लड़कियों के लिए उच्च शिक्षा तक पहुँचना एक कठिन सपना माना जाता था। उन्होंने दिल्ली जैसे महानगर से MBBS और Post Graduation (PG) की शिक्षा प्राप्त की। डॉ. सुषमा उस युग की शुरुआती  और चुनिंदा किन्नौरी महिलाओं में से एक थीं, जो डॉक्टर बनी थी, जिन्होंने चिकित्सा के क्षेत्र में इतनी ऊँचाइयाँ प्राप्त कीं। दिल्ली में वर्षों तक चिकित्सकीय सेवा देने के बाद उन्होंने Royal College of Obstetricians and Gynaecologists (RCOG), London, United Kingdom की कठिन परीक्षा भी उत्तीर्ण की और उसकी सदस्य बनी (MRCOG) और वर्तमान में वे UAE में एक अनुभवी डॉक्टर के रूप में सेवा दे रही हैं। उनके सुपुत्र वर्तमान में दिल्ली की एक प्रमुख मल्टीनेशनल कंपनी (MNC) में इंजीनियर के रूप में कार्यरत हैं।


यह सब गोपाल सिंह की उस वैचारिक विरासत का ही प्रतिफल है, जिसमें मेहनत, ईमानदारी और सतत संघर्ष के बीज अंकुरित किए गए थे। यह स्पष्ट प्रमाण है कि उनके द्वारा संचित मूल्य, सीमित संसाधनों के बावजूद, वैश्विक पटल पर प्रतिष्ठा प्राप्त कर रहे हैं।

 

5. संन्यास नहीं, साधना: सेवानिवृत्ति के बाद का जीवन

गोपाल सिंह ने 1997 में, पारिवारिक उत्तरदायित्वों और आंतरिक परिस्थितियों के कारण, समय से पूर्व सशस्त्र सीमा बल (SSB) से हवलदार के पद पर स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली। यह जीवन का वह मोड़ था जहाँ अधिकांश लोग थम जाते हैं, लेकिन गोपाल सिंह ने इसे एक नए अध्याय कीशुरुआत बना डाला।


सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने अपने घर में एक व्यक्तिगत पुस्तकालय की स्थापना की। यह केवल किताबों का संग्रह नहीं, बल्कि उनके विचारों का तीर्थ था। वे जहाँ भी जाते, वहां से कोई-न-कोई पुस्तक अवश्य लाते। आज भी उनकी पुस्तकालय में 1960 के दशक की दुर्लभ किताबें जिल्द लगाकर सुरक्षित रखी हुई हैं। इसमें चारों वेद, उपनिषद, भगवद गीता, 18 पुराण, रामायण, महाभारत, भारतीय संविधान, अर्थशास्त्र, चाणक्य नीति, ज्योतिष और दर्शनशास्त्र की प्राचीन एवं आधुनिक व्याख्याएँ मिलती हैं।

चित्र: उनके निजी लाइब्रेरी की कुछ पुस्तकें।
चित्र: उनके निजी लाइब्रेरी की कुछ पुस्तकें।

वे गांधी, अंबेडकर, नेहरू, सावरकर, भगत सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर नाथूराम गोडसे तक को पढ़ते थे — उनके लिए विचारधारा कोई सीमा नहीं थी, बल्कि हर विचार एक खिड़की था, हर किताब एक नया द्वार।

उनका जीवन-सिद्धांत था — "झूठ और बेईमानी का कभी साथ न देना।" उनकी इस अडिग सोच में उनकी अर्धांगिनी श्रीमती भाग देवी हमेशा उनके साथ रही। जीवन के हर संघर्ष में उन्होंने उन्हें संबल दिया।

चित्र: उनके निजी लाइब्रेरी की कुछ पुस्तकें।
चित्र: उनके निजी लाइब्रेरी की कुछ पुस्तकें।

उनकी अर्धांगिनी ने उन्हें हमेशा प्रोत्साहन दिया। उन्होंने गृहस्थ जीवन की आवश्यकताओं को संजोते हुए, घर के खर्चों में से बचत कर अपने पति के कार्यों में सहयोग दिया। कभी उन्हें पुस्तकें खरीदने से नहीं रोका, न ही अध्ययन में कोई बाधा डाली। जब पति देश सेवा में लगे रहते थे, तब उन्होंने पूरे समर्पण के साथ बच्चों का पालन-पोषण और घर-गृहस्थी की ज़िम्मेदारियाँ निभाईं। जीवन के हर संघर्ष में, अंतिम समय तक उन्होंने अपने पति का साथ दिया, सेवा की, और अपना सम्पूर्ण जीवन उनके लिए समर्पित कर दिया।

चित्र: गोपाल सिंह और उनकी अर्धांगिनी श्रीमती भाग देवी।
चित्र: गोपाल सिंह और उनकी अर्धांगिनी श्रीमती भाग देवी।

सेवानिवृत्ति के बाद, जब उन्हें सामाजिक और पारिवारिक संघर्षों का सामना करना पड़ा, तब उन्होंने हमेशा अपनी प्रिय बंदूक और एक टॉर्च को अपने पास रखा। क्योंकि जब वे जीवन के कठिन समय और समाज में व्याप्त झूठ और बेईमानी से लड़ रहे थे, तो उनकी आत्मरक्षा का एकमात्र सहारा उनकी व्यक्तिगत बंदूक थी। बस अपनी बंदूक और टॉर्च के सहारे वे अंधेरे रात में कहीं जाना होता तो उसी के सहारे चलते थे, क्योंकि ऐसे समय में उनका सबसे करीब का सहारा यही था, जो उनकी आत्मरक्षा और आत्मविश्वास का साधन था। वे कहते थे — "यह मेरी रक्षा करनेवाला बेटा है।" 

चित्र: गोपाल सिंह अपने 12 बोर की बंदूक के साथ, जिसे वे अपनी आत्मरक्षा का साधन और जान से ज्यादा प्यार करते थे।
चित्र: गोपाल सिंह अपने 12 बोर की बंदूक के साथ, जिसे वे अपनी आत्मरक्षा का साधन और जान से ज्यादा प्यार करते थे।

उनका दृढ़ संकल्प था —"मैं एक फौजी हूँ और हमें सिखाया गया है कि अपनी ज़मीन का एक भी इंच दुश्मन को अंतिम सांस तक किसी भी हाल में न सौंपो — चाहे प्राण ही क्यों न देने पड़ें।"


वे धर्मपरायण व्यक्ति थे। वेदों का उन्हें गहन ज्ञान था। वे बताया करते कि ऋग्वेद के कुछ अंश और किन्नौर के अपने ग्राम देवता माहदेऊ के मंदिर में गाए जाने वाले 'कोंठ' गीतों में अद्भुत समानताएँ हैं — जैसे सृष्टि की उत्पत्ति, पृथ्वी के जल-तत्त्वों से बनने की व्याख्या, और पंचतत्त्वों से मानव शरीर की रचना।

चित्र: गोपाल सिंह, अपने द्वारा रोपे गए देवदार के छोटे जंगलों में।
चित्र: गोपाल सिंह, अपने द्वारा रोपे गए देवदार के छोटे जंगलों में।

उन्होंने Tismendang नामक अपने गांव के निचले भू-भाग में देवदार के वृक्षों का रोपण किया — एक ऐसी जगह जहाँ पहले पत्थरों के सिवाय कुछ नहीं था, और ऊपर की चोटियों पर भी देवदार नहीं मिलते थे। उन्होंने वहाँ नीम जैसे पौधों को भी उगाया, जो सामान्यतः उस पर्यावरण में नहीं पनपते थे। उनका मानना था —"पृथ्वी से जो लिया है, उसे लौटाना भी हमारा धर्म है।"

चित्र: उनके द्वारा रोपे गए देवदार के पौधों ने आज वहाँ बड़े-बड़े जंगलों का रूप ले लिया है।
चित्र: उनके द्वारा रोपे गए देवदार के पौधों ने आज वहाँ बड़े-बड़े जंगलों का रूप ले लिया है।
चित्र: अपने परम घनिष्ठ मित्र राम पाल के साथ की छायाचित्र।
चित्र: अपने परम घनिष्ठ मित्र राम पाल के साथ की छायाचित्र।

6. अमर जीवन-दृष्टि: विचारों की विरासत

वे जीवन भर अनुशासनसच की राह, और झूठ व बेईमानी के विरुद्ध संघर्ष में लगे रहे। उनका लेखन प्रेम इतना गहरा था कि जीवन के अंतिम दिनों में भी, अपने कमजोर स्वास्थ्य के बावजूद वे डायरी और रजिस्टर में लिखते रहते थे।

उनके अंतिम लेखन में वे वेदों की व्याख्या, उनके प्रभाव, और जीवन पर उनके प्रभावों की व्याख्या कर रहे थे।

चित्र: जीवन के अंतिम क्षणों में मृत्यु से 2 माह पूर्व में उनके द्वारा वेद और वेदों की उत्पत्ति पर लेखन।
चित्र: जीवन के अंतिम क्षणों में मृत्यु से 2 माह पूर्व में उनके द्वारा वेद और वेदों की उत्पत्ति पर लेखन।

यह स्पष्ट है कि उन्होंने जीवन की हर लड़ाई पूरी निष्ठा और दृढ़ता से लड़ी — और अंत में, एक लंबे अंतराल तक अस्वस्थ रहने के पश्चात, वर्ष 2025 में 89 वर्ष की आयु में उन्होंने अपना यह नश्वर शरीर त्याग दिया और इस मिट्टी से विदा लेकर वो स्मृतियों में अमर हो गए वे केवल एक व्यक्ति नहीं, एक विचारएक आदर्श, और एक प्रेरणा के स्रोत हैं।

चित्र: गोपाल सिंह की सन् 2015 में अपनी पत्नी, दो पुत्रियों, दामाद और नाती-नतिन के साथ की छायाचित्र। 
चित्र: गोपाल सिंह की सन् 2015 में अपनी पत्नी, दो पुत्रियों, दामाद और नाती-नतिन के साथ की छायाचित्र। 

जीवन-सूत्र: ज़िंदा आदर्श

“कभी झूठ से समझौता मत करो, कभी अन्याय को मत सहो, और जब तक साँस है, संघर्ष मत छोड़ो।— गोपाल सिंह

 

लेखक की टिप्पणी:मैं, लेखनकर्ता, अपने बचपन का अधिकांश समय अपने नाना, गोपाल सिंह नेगी के साथ बिताया। उनकी शिक्षाएँ और जीवन दर्शन मेरे लिए केवल ज्ञान का स्रोत नहीं, बल्कि जीने का मार्ग भी थे। मैंने उनसे न केवल शब्दों का ज्ञान सीखा, बल्कि उनके अनुशासन, संघर्ष और सच्चाई के मूल्यों को भी अपने जीवन में आत्मसात किया।आज मैं जीवन में जिस दिशा में अग्रसर हुआ हूँ — शिक्षा, शोध और समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व की भावना — वह सब उनकी ही दी हुई नैतिकता, परिश्रम और विचारों का प्रतिफल है। यह लेख उनके प्रति मेरा नमन और आभार है, जिन्होंने मुझे जीवन का असली अर्थ समझाया।

 

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I am Bharat Bhushan Negi, a researcher, social media, and YouTube creator from Kalpa, Kinnaur in the Indian Himalayas. Through videos, photos and written stories, I share my journey exploring culture and places from the heart of Himalays to the bustling cities across the globe. 

Alongside my creative work, I am pursuing a Joint PhD as a research scholar at IIT Guwahati, India and Curtin University, Australia

 

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